
नैनीताल। उत्तराखंड की देवभूमि जलवायु परिवर्तन की गंभीर मार झेल रही है। कभी अपनी सुंदरता और ठंडे मौसम के लिए मशहूर हिमालयी क्षेत्र अब धीरे-धीरे जलवायु संकट का केंद्र बनते जा रहे हैं। आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्ज़र्वेशनल साइंसेज़ (एरीज), नैनीताल द्वारा किए गए हालिया अध्ययन ने एक चौंकाने वाली सच्चाई उजागर की है—हिमालय के ग्लेशियर हर साल औसतन 18 मीटर की दर से पीछे हट रहे हैं।
ग्लेशियरों का आकार घटा
एरीज के वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र सिंह के अनुसार, वर्ष 2018 में देश के प्रमुख 10–12 ग्लेशियरों पर किए गए अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि बीते पाँच से छह दशकों में इनका आकार चिंताजनक रूप से घटा है। अध्ययन में बताया गया कि हर साल इन ग्लेशियरों में 18 से 18.5 मीटर तक की कमी दर्ज की जा रही है।
इसके पीछे मुख्य कारण ग्लोबल वॉर्मिंग है, जो मानव गतिविधियों से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ोतरी से तेज़ी से बढ़ रही है।
भविष्य में बढ़ सकता है खतरा
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि हिमालय का बढ़ता तापमान न सिर्फ बर्फ को पिघला रहा है, बल्कि पूरे पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित कर रहा है। डॉ. सिंह का कहना है कि यदि मौजूदा रुझान जारी रहा तो भविष्य में हिमालयी क्षेत्र का तापमान 5 से 6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।
इसका सीधा असर हिमालय की जैव विविधता, स्थानीय संस्कृति और लाखों लोगों की आजीविका पर पड़ेगा, जो जल स्रोतों पर निर्भर हैं। विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि ग्लेशियरों का पिघलना केवल बर्फ की कमी नहीं है, बल्कि यह आने वाले वर्षों में जल संकट, बाढ़, भूस्खलन और पारिस्थितिकीय असंतुलन का कारण बन सकता है।


